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धू॒नु॒थ द्यां पर्व॑तान्दा॒शुषे॒ वसु॒ नि वो॒ वना॑ जिहते॒ याम॑नो भि॒या। को॒पय॑थ पृथि॒वीं पृ॑श्निमातरः शु॒भे यदु॑ग्राः॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वम् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dhūnutha dyām parvatān dāśuṣe vasu ni vo vanā jihate yāmano bhiyā | kopayatha pṛthivīm pṛśnimātaraḥ śubhe yad ugrāḥ pṛṣatīr ayugdhvam ||

पद पाठ

धू॒नु॒थ। द्याम्। पर्व॑तान्। दा॒शुषे॑। वसु॑। नि। वः॒। वना॑। जि॒ह॒ते॒। याम॑नः। भि॒या। को॒पय॑थ। पृ॒थि॒वीम्। पृ॒श्नि॒ऽमा॒त॒रः॒। शु॒भे। यत्। उ॒ग्राः॒। पृष॑तीः। अयु॑ग्ध्वम् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:57» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उग्राः) तेजस्वियो ! (पृश्निमातरः) जिनकी माता के सदृश अन्तरिक्ष उन पवनों के सदृश वेग से युक्त (यत्) जो आप लोग (द्याम्) बिजुली और (पर्वतान्) मेघों को (धूनुथ) कँपाइये वह (दाशुषे) दाताजन के लिये (वसु) द्रव्य को कंपित कीजिये जो (वः) आप लोगों को (वना) जङ्गल (जिहते) प्राप्त होते हैं उनको (यामनः) जानेवाले आप लोग (भिया) भय से (नि, कोपयथ) निरन्तर कंपाइये और जैसे पवन (पृथिवीम्) पृथिवी को युक्त होते हैं, वैसे (शुभे) जल के लिये (पृषतीः) सेचन करनेवाली जल की धाराओं को (अयुग्ध्वम्) युक्त कीजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन पृथिवी, मेघ और वन आदिकों को कंपाते हैं और जैसे शत्रुजन शत्रुओं को क्रुद्ध करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन पदार्थों को मथकर बिजुली आदि को कंपाते हैं और कार्य्यों में युक्त करते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे उग्राः ! पृश्निमातरो वायव इव यद्यूयं द्यां पर्वतान् धूनुथ तद्दाशुषे वसु धूनुथ यानि वो वना जिहते तानि यामनो यूयं भिया नि कोपयथ यथा वायवः पृथिवीं युञ्जते तथा शुभे पृषतीरयुग्ध्वम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (धूनुथ) कम्पयथ (द्याम्) विद्युतम् (पर्वतान्) मेघान् (दाशुषे) दात्रे (वसु) द्रव्यम् (नि) (वः) युष्मान् (वना) जङ्गलानि (जिहते) गच्छन्ति (यामनः) ये यान्ति ते (भिया) भयेन (कोपयथ) (पृथिवीम्) (पृश्निमातरः) अन्तरिक्षमातरः (शुभे) उदकाय। शुभमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (यत्) (उग्राः) तेजस्विनः (पृषतीः) सेचनकर्त्रीरुदकधाराः (अयुग्ध्वम्) योजयत ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा वायवः पृथिवीं मेघं वनादीनि च कम्पयन्ते यथा शत्रवः शत्रून् कोपयन्ति तथैव विद्वांसः पदार्थान् विमथ्य विद्युदादीन् कम्पयन्ते कार्य्येषु योजयन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू, पृथ्वी, मेघ व वन इत्यादींना कंपित करतात व जसे शत्रू शत्रूंवर क्रुद्ध होतात, तसेच विद्वान लोक पदार्थांचे मंथन करून विद्युत इत्यादींना कंपित करतात व कार्यात वापरतात. ॥ ३ ॥